Blog

Satire on Stray Dogs – मैं कुत्तों की गली तक ले चलूंगा आपको… – Satire on issue of Stray Dogs big problem for many societies in cities like delhi noida ncr ntc


मेरी गली में बहुत कुत्ते रहते हैं बल्कि अगर यह कहा जाए कि कुछ इंसान भी रहते हैं तो गलत नहीं होगा. इंसान और कुत्ते के संबंध बहुत पुराने हैं. महाभारत में भी इसका उदाहरण देखने को मिलता है. कुत्ते मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं- आवारा और पालतू. मेरी गली में दोनों ही प्रकार के कुत्ते प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं.

गली के आवारा कुत्तों से परेशान लोगों ने भी कुत्ते पाल रखे हैं. मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी लिखते हैं कि ‘इंसान की वफ़ादारी पर शक किया जा सकता है, मगर कुत्ते की वफ़ादारी पर नहीं. और यही वजह है कि हर बड़ा आदमी कुत्ता पालता है, ताकि कम-अज़-कम एक वफ़ादार तो घर में रहे.

लेकिन कुत्तों से मेरी नफरत उनके आवारा या पालतू होने के प्रकार पर निर्भर नहीं करती है. इसके लिए उनका सिर्फ कुत्ता होना ही काफी है. पशुओं की दुनिया के लिए मैं इतना पस्त फ़ितरत आदमी हूं कि मुझे खरगोश और तोतों से भी उतनी ही नफरत है जितनी मकान मालिक को बैचलर्स से होती है.

हालांकि जंगली जानवरों से मुझे कोई ऐतराज नहीं है. शेर, अजगर, दरियाई घोड़ा और गेंडे के वीडियो मैं घंटों देख सकता हूं लेकिन कुत्ते मुझे फूटी आंख नहीं सुहाते.

यह भी पढ़ें: व्यंग्य: लोकतंत्र का लकी ड्रॉ… पर्ची खुली, कुर्सी मिली और हो गया अंत्योदय

मेरी गली के कुत्ते हर आने-जाने वाले पर न सिर्फ भौंकते बल्कि बाज़ मौकों पर उन्हें दौड़ा भी लेते. वाहन चालक और लड़कियां उनके पसंदीदा शिकार हैं. दूध लेकर जाती एक कृशकाया, सुकुमार बच्ची पर भौंककर और उसे भीतर तक खौफ से भरकर इन कुत्तों को क्या मिलता होगा, मैं रोज छत से ये आलम देखता और सोचता रहता.

दरअसल ये संरक्षण प्राप्त कुत्ते थे. इन्हें संरक्षण प्राप्त था रिटायर्ड अंकलों का, कोरोना में यूट्यूब से पढ़कर पास हुए जेनज़ियों का, कामकाजी महिलाओं का और जिम जाने वाले पेट लवर्स का. ये वही पेट लवर्स थे जिनसे वीकेंड पर पूरा मुर्गा समाज खौफ खाता था. गोश्त खाकर हड्डियां डालकर इन्होंने कुत्तों से बड़े भाई-छोटे भाई वाला रिश्ता कायम कर लिया था.

इंसान एक बैलेंसवादी जीव है. वह सिर्फ जानवरों को खाता है. इंसानी अंगों को खाने वाले इंसान को ‘हैवान’ माना जाता है. लेकिन कुत्ते इतने बेशर्म हैं, खुद भी पशु हैं और खाते भी पशु-पक्षियों को हैं.

इन लोगों की नजरों में अगर गली के किसी कुत्ते को आपने दुत्कार दिया अथवा उससे डरने से मना कर दिया तो कुत्ते से पहले ये बुरा मान जाते और खुद काटने को दौड़ पड़ते. ये लोग कुत्तों का मानवीकरण कर रहे थे, उनके नाम रखते, उनसे देवनागिरी और टूटी-फूटी रोमन में बात करते, उन्हें कपड़े पहनाते.

यह भी पढ़ें: व्यंग्य: जब जीरो दिया मेरे भारत ने…

पशुओं को एक दर्जा नीचे खींचकर मनुष्य बनाने की प्रैक्टिस मेरी गली में खुलेआम चल रही थी. जैसे किसी के पास कोई काम-धंधा ही नहीं था. इन्हीं लोगों के लिए लखनऊ में कहा जाता है- बेकार आदमी कुछ किया कर, कपड़े उधेड़कर सिया कर.

गली के इन लोगों के लिए कुत्ताधिकारी, मानवाधिकार से बड़ी चीज थी. कुत्ते अगर किसी को काट लें या दौड़ाकर गिरा दें तो ये लोग नेपथ्य में जाकर श्वान निद्रा में चले जाते. माने कान खुले, आंखे बंद, माने जागती चेतना के साथ सोना.     

रोज दफ्तर जाते और आते वक्त मैं यह सोचकर गली से गुज़रता कि आज मेरी बारी है. बहुत दिनों से कुत्तों के दांतों में खून नहीं लगा है और सिर्फ भौंकने से उनका मन नहीं भरता है. मैं गली से गुजरुंगा, रोज की तरह आज भी कुत्ते मुझ पर भौंकेगे. हो सकता है कि उनका दिन अच्छा न गया हो, आज उनका गुस्सा तीव्र हो और वे पीछे न हटने के इरादे से आज आएं. व्यस्क मर्द होने के सामाजिक दबाव में मेरे पास डरने या भागने का विकल्प होगा नहीं, मजबूरन मुझे प्रतिशोध करना पड़ेगा और आखिर में मैं हार जाऊंगा और काटा जाऊंगा.

यह डर मेरे ऊपर इतना हावी था कि मैंने अपनी योजनाओं को बदल दिया था. अब मैं कुत्तों से लड़ने या बचने के बारे में नहीं सोच रहा था. अब मैं काटे जाने के बाद की योजनाओं पर काम कर रहा था.

यह भी पढ़ें: व्यंग्य: लाहौर की हवा में बरूद ही बरूद है…

काटे जाने के बाद मेरा तात्कालिक जवाबी हमला क्या होगा, निकटतम डॉक्टर कितना निकट है, वहां तक कैसे पहुंचना है, इलाज में सुइयों की संख्या कितनी होगी, क्या सिर्फ एक कुत्ता काटेगा या मेरी बहती वैतरणी में सभी डुबकी मारेंगे, क्या कुत्तों को सिर्फ काटने भर से संतोष मिल जाएगा या मैं मारा जाऊंगा.

मेरी योजनाएं तैयार थीं लेकिन कुत्ते मुझे रोज निराश कर देते. मैं रोज बच जाता. रोज दफ्तर पहुंचकर और घर लौटकर मैं निराशा से भर जाता.

निराशा कहीं आती या जाती नहीं है, वो हमेशा हमारे साथ रहती है. जब भी अपेक्षाओं के विपरीत कुछ होता है तो निराशा हमें गले से लगा लेती है. लेकिन गले लगाने वाली निराशा हमें उदास नहीं करती.

रोज सुबह लेट उठने के बावजूद समय पर दफ्तर पहुंचने की निराशा, अनुमान से अधिक नमक डालने के बाद भी खाने में स्वाद आने की निराशा, क्रश की स्टोरी पर आदतन लिखे गए कमेंट पर लव रिएक्ट आने की निराशा, देर से स्टेशन पहुंचने के बावजूद ट्रेन न छूटने की निराशा. हर निराशा हमें निराश नहीं करती.

यह भी पढ़ें: एक छोटी सी लव स्टोरी: मैं पागल प्लूटो आवारा, दिल तेरी मोहब्बत का मारा

मेरी गली में सिर्फ कुत्ते रहते हैं, कोई कुतिया नहीं है. मेरी गली के कुत्ते सिंगल हैं, शायद इसीलिए वे पूरा दिन भौंकते, दौड़ते और गुस्से में रहते हैं. अगर मेरी गली में कोई कुतिया होती तो वे ऐसे न होते.

जिस तरह इंसानों में प्रेम इंसानियत पैदा करता है, मेरा दावा है कि कुत्तों में भी कुतत्व की भावना पैदा हो जाती. अगर मेरी गली में कुतियाएं होती तो ये आवारा, गुस्सैल कुत्ते किसी युगल की भांति कोना पकड़ लेते और दिवंगत कृष्ण कुमार कुन्नथ के गाने सुनते- ‘मेरी धड़कनों में ही तेरी सदा, इस कदर तू मेरी रूह में बस गया… तेरी यादों से कब रहा मैं जुदा, वक़्त से पूछ ले वक़्त मेरा गवाह‘.

मैं सोसाइटी प्रशासन से अनुरोध करूंगा कि कुत्तों की इस गली में लिंगानुपात को सुधारा जाए और कुतियों की बसावट की जाए ताकि कुत्तों का ताप कुछ कम हो.



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *